सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

बाल कविता: होली का हुड़दंग

सबके चेहरे काले पीले
लाल हरे और नीले रंग देख भूत भी डर जाएं
होली का हुड़दंग
हुर्र सर्रर्र पिचकारी
एक दूजो रंगने की जंग
भागो धड़ाम ओह! मचा हुआ है
होली का हुड़दंग
बाल लोगों के गोल्डेन सिल्वर
कपड़े सारे हुए नवरंग
च्चूऽ बेचारे! और करोगे
होली का हुड़दंग?
ढली सांझ फेंको पिचकारी
खाओ पकवान बड़ों के संग
भूल जाओ अब बिल्कुल बच्चों
होली का हुड़दंग!
(नोट: मेरी यह कविता बरसों पूर्व दैनिक राँची एक्सप्रेस में छप चुकी है)

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