गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

कविता : बेवजह

क्यों लिखूं मैं / कविता / क्यों उतारूं / कोरे पन्नों पर / अपने मन / अंतर्मन की बात / सीधे सादे / काग़जों को / बेवजह / क्यों गुदगुदाऊं / अमिट स्याही से / भरी लेखनी को / क्यों खटाऊं / बेवजह / अपने गूढ़ शब्द / विचारों से / पाठकों को / क्यों करूं भ्रमित / बेवजह / डालूं असमंजस में...? / ...आखिर हो ही गई / तैयार / बातों ही बातों में / पढ़ने को एक / कविता / बेवजह

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

मत करो गुस्सा / थूक दो इसे / फेंक दो इसे / है ये बारूद / मानवीय रिश्तों की / बर्बादी का / गला घोंटता / पिशाच है ये / गुस्सा नहीं है / मानवों के लिए / ये तो विरासत है / पशुओं की / धरोहर है उनकी / हो अगर पशु तुम भी / तो तेरा भी / 'प्रिय प्रसाद' है ये / कर लो ग्रहण / स्वीकार / सहज तुम / पशुता दिखाने के लिए

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

बाल कविता: होली का हुड़दंग

सबके चेहरे काले पीले
लाल हरे और नीले रंग देख भूत भी डर जाएं
होली का हुड़दंग
हुर्र सर्रर्र पिचकारी
एक दूजो रंगने की जंग
भागो धड़ाम ओह! मचा हुआ है
होली का हुड़दंग
बाल लोगों के गोल्डेन सिल्वर
कपड़े सारे हुए नवरंग
च्चूऽ बेचारे! और करोगे
होली का हुड़दंग?
ढली सांझ फेंको पिचकारी
खाओ पकवान बड़ों के संग
भूल जाओ अब बिल्कुल बच्चों
होली का हुड़दंग!
(नोट: मेरी यह कविता बरसों पूर्व दैनिक राँची एक्सप्रेस में छप चुकी है)